– अरविन्द श्रीधर
जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी महाकाल विद्यमान थे। स्कंद पुराण के अवंती खण्ड में महाकाल की कथा विस्तार से दी गई है-
पुरा त्वेकार्णवे प्राप्ते नष्टे स्थावरजंगमे।
नाग्निर्न वायुरादित्यो न भूमिर्न दिशो नम:।।
न नक्षत्राणि न ज्योतिर्न धौर्नेन्दुग्र्रहास्तथा।
न देवासुरगन्धर्वा: पिशाचोरगराक्षसा:।।
सरांसि नैव गिरयो नापगा नाब्धयस्तथा।
सर्वमेव तवोभूतं न प्राज्ञायत किञचन।।
तकैको हि महाकालो लोणनुग्रहकारणात्।
तस्थौ स्थानान्यशेषाणि काष्ठास्वालोकयन्प्रभु।।
प्रलय के समय स्थावर जंगम जगत में जब कुछ भी नहीं था। न अग्नि थी, न वायु था, न सूर्य, न पृथ्वी, न दिशाएँ, न क्षत्र, न प्रकाश, न आकाश, न चन्द्र और न ग्रह ही थे। देव, असुर, गंधर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षसगण भी नहीं थे। सरोवर, पर्वत, नदी एवं समुद्र भी नहीं थे। सब ओर घोर अंधकार था। ऐसे समय में लोकानुग्रह के कारण केवल महाकाल ही विद्यमान थे, जो सभी दिशाओं को देख रहे थे।
ब्रह्मा जी द्वारा की गई तपस्या एवं आराधना से प्रसन्न होकर उन्होंने महाकाल वन में निवास करना स्वीकार किया।
शिवपुराण के अनुसार बारह ज्योर्तिलिंगों में तृतीय श्री महाकाल उज्जयिनी में विराजित हैं।
एक बार दूषण नामक असुर जो वेद एवं ब्राह्मणों का घोर विरोधी था, के अत्याचार से सभी संतप्त हो उठे। एक भक्त ब्राह्मण द्वारा की गई तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी प्रकट हुए एवं उन्होंने अपनी हंकार से असुर को भस्म कर दिया।
भक्तों एवं देवताओं के आग्रह पर भक्त वत्सल भगवान शिवजी महाकाल ज्योतिर्लिंग स्वरूप में यहीं स्थापित हो गए।
एक जगह विवरण आता है कि एक गोपी ने भक्ति भाव से महाकाल ज्योतिर्लिंग पर मंदिर का निर्माण कराया था। इस गोपी की आठवीं पीढ़ी में नंद हुए, जिनके आँगन में भगवान श्रीकृष्ण ने लीला रची।
महाभारत, मत्स्य पुराण, देवी भागवत, अग्नि पुराण, वराह पुराण, भागवत पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, लिंग पुराण, हरिवंश पुराण आदि में भी उज्जयिनी स्थित महाकाल की महिमा गायी गई है।
काल का अर्थ समय और मृत्यु दोनों लियाजाता है। भूतभावन भगवान महाकाल समय और मृत्यु दोनों के अधिपति के रूप में पूजित हैं। ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में तीन शिवलिंगों को पूज्य माना गया है, उनमें भूलोग पृथ्वी पर महाकाल की प्रधानता है।
आकाशे तारकं लिंगं, पाताले हाटकेश्वरम्।
भूलोके च महाकालो लिंगत्रय नमास्तुते।।
अर्थात आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर एवं भूलोक में महाकाल के रूप में विराजित हैं लिंगत्रय, आपको नमस्कार है।
बारह ज्योतिर्लिंगों में महाकाल का विशेष महत्व है। स्कन्द पुराण के अनुसार महाकाल वन संचित पाप नष्ट होने से क्षेत्र, मातृदेवियों का स्थान होने से पीठ, मृत्यु के उपरान्त पुन: जन्म न होने से गुह्य तथा भूतों का प्रिय स्थान होने से श्मसान कहलाता है।
यह पांच वैशिष्ट्य केवल यहीं पाए जाते हैं। इसलिए यहां की गई साधना एवं उपासना विशेष फलदायी कही गई है।
इसी वैशिष्ट्य के फलस्वरूप उज्जयिनी में शैव मत के अलावा वैष्णव, शाक्त, तांत्रिक, मांत्रिक, बौद्ध, जैन आदि सभी सम्प्रदायों के साधन स्थल विकसित हुए और यह वैभवशाली नगर दिव्य नगर भी कहलाया।
प्राप्त संदर्भों का अवलोकन करें तो ई.पू. छठी सदी में उज्जयिनी के राजा चन्डप्रद्योत द्वारा मंदिर की व्यवस्था के लिए अपने पुत्र को नियुक्त करने संबंधी जानकारी मिलती है। 11वीं-12वीं सदी में महाकाल मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ। इस समय उदयादित्य एवं नरवर्मा यहां के शासक थे। सन् 1325 में सुल्तान इल्तुतमिश ने मंदिर को नुकसान पहुंचाया। लेकिन महाकाल के धार्मिक महत्व को कम न कर सका। वर्तमान मंदिर मराठा कालीन है। इसे मराठा शासक राणोजी शिन्दे के दीवान रामचंद्र बाबा शैणवी द्वारा बनवाया गया।
बारह ज्योतिर्लिंगों में सबसे विस्तृत परिसर कदाचित महाकाल मंदिर की है जिसमें 40 से अधिक ऐसे मंदिर हैं जो पुराण काल से लगकर 300-400 वर्ष पहले तक के हैं।
पाठकों एवं श्रद्धालुओं के लिए मंदिर परिसर में स्थित प्रमुख देवस्थानों की संक्षिप्त जानकारी देना उपयोगी होगा।
- मुख्य मंदिर-
मुख्य मंदिर तीन भागों में है…
गर्भ गृह- गर्भगृह में भूतभावन भगवान महाकाल स्वयं विराजित हैं। तीन आलों में देवी पार्वती, श्री गणेश एवं श्री कार्तिकेय की रजत प्रतिमाएं विराजित हैं। गर्भ गृह में ही दो अखंड दीप प्रज्जवलित हैं। कहा जाता है कि औरंगजेब ने इन दीपों को अखंड प्रज्जवलित रखने के लिए राज्य की ओर से घी दिए जाने की सनद लिखी थी। महाकाल ज्योतिर्लिंग के सामने उनके प्रमुख गण नंदी की विशाल रजत प्रतिमा स्थापित है।
ओंकारेश्वर महादेव- प्रथम तल पर ओंकारेश्वर महादेव विराजेत हैं। इन्हें ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग का प्रतिरूप माना जाता है।
नागचन्द्रेश्वर महादेव- मंदिर के तृतीय तल पर नागचंद्रेश्वर महादेव विराजे हैं। यहां पर शिव-पार्वती की परमारकालीन सुन्दर प्रतिमा स्थापित है जिसके ऊपर नागफन छत्र के रूप में फैला हुआ है। इस मंदिर के दर्शन वर्ष में एक बार केवल नागपंचमी को ही होते हैं।
- साक्षी गोपाल- कहते हैं कि भूतभावन भगवान महाकाल तो अखंड समाधि में रहते हैं। ऐसे में साक्षी गोपाल ही महाकाल के दर्शनार्थियों को साक्षी देते हैं। अत: महाकाल दर्शन के उपरांत श्रद्धालुओं को साक्षी गोपाल के दर्शन अवश्य करना चाहिए।
- सिद्धदास हनुमान मंदिर- मंदिर परिसर में उत्तर दिशा में स्थित इस प्राचीन मंदिर में समर्थ गुरु रामदास जी ने हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की थी, ऐसा कहा जाता है। मंदिर को संकट मोचक सिद्धदास हनुमान मंदिर भी कहा जाता है।
- ऋषि-सिद्धि विनायक मंदिर – मंदिर में विराजित प्रतिमाएं अत्यंत प्राचीन हैं। यह मंदिर ओंकारेश्वर मंदिर के सामने विशाल वट वृक्ष के नीचे स्थित है।
- लक्ष्मी नृसिंह मंदिर- महाकाल मंदिर के गलियारे में स्थित इस मंदिर में नृसिंह दरबार स्थापित है। भगवान नृसिंह के साथ-साथ देवी लक्ष्मी एवं प्रहलाद की प्रतिमाएं भी मंदिर में स्थापित हैं। स्कंद पुराण की कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप के वध के पश्चात भगवान नृसिंह को क्रोध इसी स्थान पर शांत हुआ था।
- श्री राम दरबार- प्रसिद्ध संत श्री ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर जी ने परिसर के गलियारे में इस मंदिर की स्थापना की थी। मंदिर में राम दरबार की सुंदर प्रतिमाएं विराजित हैं।
- अवंतिका देवी – श्री राम मंदिर के पीछे अवंतिका देवी का मंदिर है। अवंतिका देवी को उज्जयिनी की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। इसी कारण उज्जयिनी का एक नाम अवंतिकापुरी भी है।
- चंद्रादित्येश्वर- महाकाल वन में स्थित 84 महादेवों में इनकी गणना होती है। इसी मंदिर में आद्य शंकराचार्य जी की प्रतिमा भी स्थापित है।
- अन्नपूर्णा देवी- इस मंदिर में देवी अन्नपूर्णा के साथ-साथ गोरे भैरव तथा काले भैरव भी स्थापित हैं। गुप्त नवरात्र में यहां विशेष पूजन होती है।
- वाच्छायन गणपति- चाँदी द्वार के पास वाच्छायन गणपति विराजित हैं, जिनकी आराधना से मनोवांछित इच्छाओं की पूर्ति होती है।
- स्वप्नेश्वर महादेव- 84 महादेवों में वर्णित स्वप्नेश्वर महादेव सिद्धदास हनुमान मंदिर के सामने स्थापित हैं। इनके दर्शन से दु:स्वप्नों के कुप्रभावों से मुक्ति मिलती है।
- त्रिविशिष्टपेश्वर महादेव- 84 महादेवों में वर्णित त्रिविष्टपेश्वर महादेव मंदिर महाकाल मंदिर के पीछे स्थित है।
- बृहस्पतेश्वर महादेव- स्वप्नेश्वर महादेव के समीप बृहस्पति (गुरु) शिवलिंग के रूप में विराजित हैं।
- भद्रकाली मंदिर- ओंकारेश्वर मंदिर के उत्तरी कक्ष में माँ भद्रकाली का सुन्दर स्वरूप मंदिर में स्थापित है।
- नवगृह मंदिर- महाकाल मंदिर के निर्गम द्वार के समीप नवगृह मंदिर स्थित है। मंदिर में नौ गृह शिवलिंग के रूप में स्थापित है।
- नीलकंठेश्वर महादेव- महाकाल मंदिर के पीछे नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर है। संसार के ताप से मुक्ति के लिए इनकी पूजा की जाती है।
- स्वर्णजालेश्वर मंदिर- 84 महादेवों में वर्णित स्वर्णजालेश्वर की पूजन-अर्चना से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
- शनि मंदिर- कोटि तीर्थ कुण्ड के समीप प्राचीन शनि मंदिर स्थित है।
- अनादिकल्पेश्वर महादेव- अनादिकल्पेश्वर की गणना 84 महादेवों में की जाती है।
एक कथा के अनुसार ब्रह्मा और विष्णु दोनों सृष्टि निर्माण का श्रेय लेना चाहते थे। उन्हें महाकाल वन में स्थित अनादिकल्पेश्वर महादेव का आदि एवं अंत खोजने की आज्ञा हुई। ब्रह्मा जी आकाश में एवं विष्णु भगवान पाताल लोक में आदि एवं अंत खोजने के लिए निकले। पाताल लोक में अंत न पाकर विष्णु भगवान वापस आ गए। ब्रह्मा जी को भी आकाश में अंत नहीं मिला, लेकिन उन्होंने अंत मिलने संबंधी झूठ बोला तथा गाय एवं केवड़ा के फूल से झूठी गवाही भी दिलाई। झूठी गवाही से महादेव कुपित हुए एवं उन्होंने ब्रह्माजी तथा गाय को श्राप दिया। साथ ही केवड़े के फूल को अपनी पूजा में निषिद्ध कर दिया।
- श्री बाल विजय मस्त हनुमान- अनादिकल्पेश्वर मंदिर के सामने यह एक चैतन्य मंदिर है जहां बाल हनुमान की सुन्दर प्रतिमा स्थापित है।
- वृद्धकालेश्वर महाकाल- वृद्धकालेश्वर महाकाल के बारे में कहा जाता है कि वर्तमान ज्योतिर्लिंग से पूर्व वृद्धकालेश्वर ही पूजे जाते थे, पर इस तथ्य को निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता।
- सप्तऋषि मंदिर- मंदिर परिसर में पीछे सप्तऋषि मंदिर स्थित है जहां पर मानव जाति के आदि पुरुषों के रूप में मान्य सप्तऋषि विराजित हैं। ऋषि पंचमी के दिन महिलाएं एवं रक्षाबंधन के दिन ब्राह्मण अपने पूर्वजों के रूप में सप्तऋषियों का पूजन करते हैं।
- कोटितीर्थ कुण्ड- मंदिर परिसर में स्थित कोटितीर्थ कुण्ड का जल अत्यंत पवित्र माना जाता है। कोटि तीर्थ कुण्ड में भारत भूमि की सभी पवित्र नदियों एवं सरोवरों के जल का वास माना गया है। इसी कुण्ड के जल से नित्य महाकाल का अभिषेक होता है। महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में कोटितीर्थ कुंड का उल्लेख मिलता है।
- कोटेश्वर महादेव- कोटेश्वर महादेव कोटितीर्थ कुण्ड के अधिष्ठाता हैं।
- नागवंध- यह परमारकालीन (11 शताब्दी) शिलालेख है जो महाकाल मंदिर के पीछे स्थित है। इस शिलालेख में भूतभावन भगवान महाकाल की प्रशस्ति की गई है।
इसके अलावा विट्ठल पंडरीनाथ मंदिर, मंगलनाथ मंदिर, प्रवेश द्वार के गणेश, ऋषि-सिद्धि विनायक मंदिर, मारुतिनंदन मंदिर, दक्षिणी मराठों का मंदिर, गोविंदेश्वर महादेव, सूर्यमुखी हनुमान, लक्ष्मी प्रदाता मोढ़ गणेश मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, ओंकारेश्वर महादेव मंदिर आदि भी परिसर में स्थित हैं। मंदिर परिसर में ही भस्म तैयार करने का कक्ष है, जहां महाकाल की भस्म आरती हेतु गाय के गोबर के कंडों से भस्म तैयार की जाती है। महाकाल मंदिर परिसर शैव, शाक्त एवं वैष्णव परंपराओं का भव्य समन्वय स्थल है, जहां नवगृह एवं सप्तऋषि भी अपनी दिव्यता के साथ उपस्थित हैं। दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग होने से तांत्रिक परंपरा का महत्वपूर्ण स्थान तो यह है ही। कहा जा सकता है कि धर्मावलंबियों के लिए महाकाल मंदिर परिसर साक्षात देवलोक हैं। (विफी)